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जनवरी, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गीता अध्याय ll 14 ll, श्लोक ll 15 ll

गीता अध्याय ll 14 ll श्लोक ll 15 ll रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्‍गिषु जायते। तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते॥ हिंदी अनुवाद रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य कीट, पशु आदि मूढ़योनियों में उत्पन्न होता है

गीता अध्याय ll 14 ll, श्लोक ll 14 ll

गीता अध्याय ll 14 ll श्लोक ll 14 ll यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्‌। तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते॥ हिंदी अनुवाद जब यह मनुष्य सत्त्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब तो उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है

गीता अध्याय ll 14 ll, श्लोक ll13 ll

गीता अध्याय ll 14 ll श्लोक ll 13 ll अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च। तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन॥ हिंदी अनुवाद हे अर्जुन! तमोगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण और इंन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियाँ - ये सब ही उत्पन्न होते हैं॥

गीता ll 14 ll अध्याय, श्लोक ll 11 ll

गीता अद्याय ll14 ll श्लोक ll 11 ll सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते। ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत॥ हिंदी अनुवाद जिस समय इस देह में तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतनता और विवेक शक्ति उत्पन्न होती है, उस समय ऐसा जानना चाहिए कि सत्त्वगुण बढ़ा है ॥

गीता अध्याय ll 12 ll

गीता अध्याय  ll 14 ll श्लोक ll12 ll लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा। रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ॥ हिंदी अनुवाद हे अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, स्वार्थबुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरम्भ, अशान्ति और विषय भोगों की लालसा- ये सब उत्पन्न होते हैं

गीता अध्याय ll 14 ll, श्लोक ll 10 ll

गीता अध्याय ll 14 ll श्लोक ll 10 ll रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत। रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण, वैसे ही सत्त्वगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण होता है अर्थात बढ़ता है ||

गीता अध्याय ll 14 ll, श्लोक ll 9 ll

गीता अध्याय ll 14 ll श्लोक ll 9 ll सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत। ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढँककर प्रमाद में भी लगाता है ॥

गीता अध्याय श्लोक ll 14 ll, श्लोक ll 8ll

गीता अध्याय ll 14 ll श्लोक ll 8 ll  तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्‌। प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत॥ हिंदी अनुवाद हे अर्जुन! सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को प्रमाद (इंद्रियों और अंतःकरण की व्यर्थ चेष्टाओं का नाम 'प्रमाद' है), आलस्य (कर्तव्य कर्म में अप्रवृत्तिरूप निरुद्यमता का नाम 'आलस्य' है) और निद्रा द्वारा बाँधता है ॥

गीता अध्याय ll 14 ll, श्लोक ll 7 ll

गीता अध्याय ll 14 ll श्लोक ll 7 ll  रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्‍गसमुद्भवम्‌। तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्‍गेन देहिनम्‌॥ हिंदी अनुवाद हे अर्जुन! रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को कर्मों और उनके फल के सम्बन्ध में बाँधता है ||

गीता नवम अध्याय, श्लोक ll 9 ll

गीता नवम अध्याय  श्लोक ll 9 ll न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।  उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीन के सदृश (जिसके संपूर्ण कार्य कर्तृत्व भाव के बिना अपने आप सत्ता मात्र ही होते हैं उसका नाम 'उदासीन के सदृश' है।) स्थित मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बाँधते ॥. 

गीता नवम अध्याय, श्लोक ll 25 ll

गीता नवम अध्याय  श्लोक ll 25 ll यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।  भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्‌॥ हिंदी अनुवाद  देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। इसीलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता (गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में देखना चाहिए) ॥

गीता दशम अध्याय, श्लोक 7

गीता दशम अध्याय  श्लोक ll 7 ll एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।  सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥ हिंदी अनुवाद  जो पुरुष मेरी इस परमैश्वर्यरूप विभूति को और योगशक्ति को तत्त्व से जानता है (जो कुछ दृश्यमात्र संसार है वह सब भगवान की माया है और एक वासुदेव भगवान ही सर्वत्र परिपूर्ण है, यह जानना ही तत्व से जानना है), वह निश्चल भक्तियोग से युक्त हो जाता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥

गीता नवम अध्याय श्लोक ll 13 ll

गीता नवम अध्याय  श्लोक ll 13 ll महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।  भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्यम्‌॥ हिंदी अनुवाद  परंतु हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृति के आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरंतर भजते हैं ॥

गीता अध्याय ll 14 ll, श्लोक ll 6 ll

गीता अध्याय ll 14 ll श्लोक ll 6 ll   तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्‌। सुखसङ्‍गेन बध्नाति ज्ञानसङ्‍गेन चानघ॥ हिंदी अनुवाद  हे निष्पाप! उन तीनों गुणों में सत्त्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकार रहित है, वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अर्थात उसके अभिमान से बाँधता है॥

गीता अद्याय ll 14 ll

गीता अध्याय ll 14 ll श्लोक ll 4 ll   सत्‌, रज, तम- तीनों गुणों का विषय) सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः। निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्‌॥ हिंदी अनुवाद हे अर्जुन! सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण -ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं ॥

गीता अध्याय ll 14 ll

गीता  अध्याय ll 14 श्लोक ll 5 ll   सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः। तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियाँ अर्थात शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्रकृति तो उन सबकी गर्भधारण करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता से लता हु ॥

गीता अध्याय ll 14 ll, श्लोक ll 3 ll

गीता अध्याय ll 14 ll श्लोक ll 3 ll  मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌। सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! मेरी महत्‌-ब्रह्मरूप मूल-प्रकृति सम्पूर्ण भूतों की योनि है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और मैं उस योनि में चेतन समुदायरूप गर्भ को स्थापन करता हूँ। उस जड़-चेतन के संयोग से सब भूतों की उत्पति होती है

गीता अध्याय ll 14 ll, श्लोक ll2ll

गीता अध्याय ll 14 ll श्लोक ll 2 ll  इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः। सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥ हिन्दी अनुवाद इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते॥

गीता ll 14 ll

गीता अध्याय ll 14 ll श्लोक ll 1 ll  हिन्दी अनुवाद  ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत्‌ की उत्पत्ति) श्रीभगवानुवाच परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम्‌। यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः॥ हिन्दी अनुवाद श्री भगवान बोले- ज्ञानों में भी अतिउत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 34 ll

गीता त्रयोदश अध्याय हिन्दी अनुवाद  श्लोक ll 34 || क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा । भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्‌॥ हिन्दी अनुवाद इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को (क्षेत्र को जड़ विकारी, क्षणिक और नाशवान तथा क्षेत्रज्ञ को नित्य, चेतन अविकारी और अविनाशी जानना ही 'उनके भेद को जानना है) तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं ॥ 

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक || 33 ||

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक ll 33 ll  यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः । क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥ हिन्दी अनुवाद  हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है ||

गीता त्रयोदश अद्याय, श्लोक ll 31 ll

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक ll 31 ll   अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः। शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते॥ हिन्दी अनुवाद  हे अर्जुन! अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 32 ll

गीता त्रयोदश अध्याय  हिन्दी अनुवाद  श्लोक ll 32 || यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते । सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते॥ हिन्दी अनुवाद  जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 30 ll

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक  || 30 ||   यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति। तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥ हिन्दी अनुवाद जिस क्षण यह पुरुष भूतों के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक || 29 ||

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक || 29 || प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः। यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति॥ हिन्दी अनुवाद  और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति द्वारा ही किए जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 28 ll

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक ll 28 ll  समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्‌। न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्‌॥ हिन्दी अनुवाद  क्योंकि जो पुरुष सबमें समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 27 ll

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक || 27 || समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्‌। विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥ हिन्दी अनुवाद जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखता है वही यथार्थ देखता है ||

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 26 ll

गीता त्रयोदश अध्याय  श्लोक ll 26 ll यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्‍गमम्‌। क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥ हिन्दी अनुवाद  हे अर्जुन! यावन्मात्र जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 25 ll

गीता त्रयोदश अध्याय  श्लोक ll 25 ll अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते। तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः॥ हिन्दीअनुवाद  परन्तु इनसे दूसरे अर्थात जो मंदबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्व के जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागर को निःसंदेह तर जाते हैं

गीता त्रयोदश अध्याय,श्लोक ll 24 ll

गीता त्रयोदश अध्याय   श्लोक ll 24 ll ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना। अन्ये साङ्‍ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥ हिन्दी अनुवाद  उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान (जिसका वर्णन गीता अध्याय 6 में श्लोक 11 से 32 तक विस्तारपूर्वक किया है) द्वारा हृदय में देखते हैं, अन्य कितने ही ज्ञानयोग (जिसका वर्णन गीता अध्याय 2 में श्लोक 11 से 30 तक विस्तारपूर्वक किया है) द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग (जिसका वर्णन गीता अध्याय 2 में श्लोक 40 से अध्याय समाप्तिपर्यन्त विस्तारपूर्वक किया है) द्वारा देखते हैं अर्थात प्राप्त करते ||

गीता त्रयोदश अध्याय,श्लोक ll 23 ll

गीता त्रयोदश अध्याय  श्लोक ll 23 ll य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह। सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते॥ हिन्दी अनुवाद इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है (दृश्यमात्र सम्पूर्ण जगत माया का कार्य होने से क्षणभंगुर, नाशवान, जड़ और अनित्य है तथा जीवात्मा नित्य, चेतन, निर्विकार और अविनाशी एवं शुद्ध, बोधस्वरूप, सच्चिदानन्दघन परमात्मा का ही सनातन अंश है, इस प्रकार समझकर सम्पूर्ण मायिक पदार्थों के संग का सर्वथा त्याग करके परम पुरुष परमात्मा में ही एकीभाव से नित्य स्थित रहने का नाम उनको 'तत्व से जानना' है) वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता ॥

गीता ट्रोयोदश अध्याय,श्लोक ll 22 ll

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक ll 22 ll हिन्दी अनुवाद  उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः। परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः॥ हिन्दी अनुवाद  इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। वह साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा- ऐसा कहा गया है ॥

गीता त्रयोदश अध्याय,श्लोक 21

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक ll 21 ll   पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्‍क्ते प्रकृतिजान्गुणान्‌। कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥ हिन्दी अनुवाद  प्रकृति में (प्रकृति शब्द का अर्थ गीता अध्याय 7 श्लोक 14 में कही हुई भगवान की त्रिगुणमयी माया समझना चाहिए) स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है। (सत्त्वगुण के संग से देवयोनि में एवं रजोगुण के संग से मनुष्य योनि में और तमो गुण के संग से पशु आदि नीच योनियों में जन्म होता है।) ॥

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक 20

गीता त्रयोदश अध्याय  श्लोक ll 20 ll कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते। पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥  हिंदी अनुवाद कार्य (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध -इनका नाम 'कार्य' है) और करण (बुद्धि, अहंकार और मन तथा श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र और घ्राण एवं वाक्‌, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा- इन 13 का नाम 'करण' है) को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुःखों के भोक्तपन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 19 ll

गीता त्रयोदश अध्याय  श्लोक ll 19 ll (ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विषय) प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्‌यनादी उभावपि। विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्‌॥ हिन्दी अनुवाद  प्रकृ ति और पुरुष- इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 18 ll

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक ll 18 ll   इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः। मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते॥ हिन्दी अनुवाद इस प्र कार क्षेत्र (श्लोक 5-6 में विकार सहित क्षेत्र का स्वरूप कहा है) तथा ज्ञान (श्लोक 7 से 11 तक ज्ञान अर्थात ज्ञान का साधन कहा है।) और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप (श्लोक 12 से 17 तक ज्ञेय का स्वरूप कहा है) संक्षेप में कहा गया। मेरा भक्त इसको तत्व से जानकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है ॥

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक 17

गीता त्रयोदश अध्याय  श्लोक ll 17 ll ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते। ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्‌॥  हिन्दी अनुवाद वह परब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति (गीता अध्याय 15 श्लोक 12 में देखना चाहिए) एवं माया से अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 15 ll

गीता त्रयोदश अध्याय  श्लोक  ll 15 ll बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च। सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत्‌॥  हिंदी अनुवाद वह चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय (जैसे सूर्य की किरणों में स्थित हुआ जल सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है, वैसे ही सर्वव्यापी परमात्मा भी सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है) है तथा अति समीप में (वह परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण और सबका आत्मा होने से अत्यन्त समीप है) और दूर में (श्रद्धारहित, अज्ञानी पुरुषों के लिए न जानने के कारण बहुत दूर है) भी स्थित वही है ॥

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक ll 16 ll

गीता त्रयोदशी अध्याय श्लोक  ll 16 ll हिन्दी  अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्‌। भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च॥  हिन्दी अनुवाद वह परमात्मा विभागरहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है (जैसे महाकाश विभागरहित स्थित हुआ भी घड़ों में पृथक-पृथक के सदृश प्रतीत होता है, वैसे ही परमात्मा सब भूतों में एक रूप से स्थित हुआ भी पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है) तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णुरूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करने वाला है ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 14 ll

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक ll 14 ll    बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च। सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञयं दूरस्थं चान्तिके च तत्‌॥ हिन्दी अनुवाद  वह चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय (जैसे सूर्य की किरणों में स्थित हुआ जल सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है, वैसे ही सर्वव्यापी परमात्मा भी सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है) है तथा अति समीप में (वह परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण और सबका आत्मा होने से अत्यन्त समीप है) और दूर में (श्रद्धारहित, अज्ञानी पुरुषों के लिए न जानने के कारण बहुत दूर है) भी स्थित वही है ॥

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक ll 13 ll

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक ll 13 ll सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्‌। सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥  हिंदी अनुवाद वह सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। (आकाश जिस प्रकार वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का कारण रूप होने से उनको व्याप्त करके स्थित है, वैसे ही परमात्मा भी सबका कारण रूप होने से सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त करके स्थित है) ॥13॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 12 ll

गीता त्रयोदश अध्याय अनुवाद  श्लोक ll 12 ll ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते। अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥ हिन्दी अनुवाद  जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा। वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत्‌ ही कहा जाता है, न असत्‌ ही ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 11 ll

गीता त्रयोदश अध्याय  श्लोक ll 11 ll हिन्दी  अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्‌। एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा॥  हिन्दी अनुवाद अध्यात्म ज्ञान में (जिस ज्ञान द्वारा आत्मवस्तु और अनात्मवस्तु जानी जाए, उस ज्ञान का नाम 'अध्यात्म ज्ञान' है) नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना- यह सब ज्ञान (इस अध्याय के श्लोक 7 से लेकर यहाँ तक जो साधन कहे हैं, वे सब तत्वज्ञान की प्राप्ति में हेतु होने से 'ज्ञान' नाम से कहे गए हैं) है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान (ऊपर कहे हुए ज्ञान के साधनों से विपरीत तो मान, दम्भ, हिंसा आदि हैं, वे अज्ञान की वृद्धि में हेतु होने से 'अज्ञान' नाम से कहे गए हैं) है- ऐसा कहा है ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 10 ll

गीता त्रयोदश अध्याय  श्लोक ll 10 ll मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी। विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥ हिन्दी अनुवाद  मुझ परमेश्वर में अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति (केवल एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर को ही अपना स्वामी मानते हुए स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके, श्रद्धा और भाव सहित परमप्रेम से भगवान का निरन्तर चिन्तन करना 'अव्यभिचारिणी' भक्ति है) तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना ||

गीता त्रयोदश अध्याय श्लोक ll 9 ll

गीता त्रयोदश अध्याय  श्लोक ll9 ll असक्तिरनभिष्वङ्‍ग: पुत्रदारगृहादिषु। नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥  हिंदी अनुवाद पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 8 ll

गीता त्रयोदश अध्याय  श्लोक ll 8 ll इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्‍कार एव च। जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्‌॥ हिन्दी अनुवाद  इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 7 ll

गीता त्रयोदश अध्याय हिन्दी अनुवाद  श्लोक ll 7 ll अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्‌। आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥ हिन्दी अनुवाद  श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि (सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की और उसके अन्न से आहार की तथा यथायोग्य बर्ताव से आचरणों की और जल-मृत्तिकादि से शरीर की शुद्धि को बाहर की शुद्धि कहते हैं तथा राग, द्वेष और कपट आदि विकारों का नाश होकर अन्तःकरण का स्वच्छ हो जाना भीतर की शुद्धि कही जाती है।) अन्तःकरण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 6 ll

गीता त्रयोदश अध्याय अनुवाद  श्लोक ll 6 ll इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्‍घातश्चेतना धृतिः। एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्‌॥ हिन्दी अनुवाद तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देहका पिण्ड, चेतना (शरीर और अन्तःकरण की एक प्रकार की चेतन-शक्ति।) और धृति (गीता अध्याय 18 श्लोक 34 व 35 तक देखना चाहिए।)-- इस प्रकार विकारों (पाँचवें श्लोक में कहा हुआ तो क्षेत्र का स्वरूप समझना चाहिए और इस श्लोक में कहे हुए इच्छादि क्षेत्र के विकार समझने चाहिए।) के सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 5 ll

गीता त्रयोदश अध्याय  श्लोक ll 5 ll महाभूतान्यहङ्‍कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च। इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः॥ हिन्दी अनुवाद  पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति भी तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 4 ll

गीता त्रयोदश अद्याय  श्लोक ll 4 ll ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्‌। ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः॥ हिन्दी अनुवाद  यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और विविध वेदमन्त्रों द्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किए हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 3 ll

गीता त्रयोदश अध्याय  श्लोक ll 3 ll तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्‌। स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु॥ हिन्दी अनुवाद  वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाववाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन ॥

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 2 ll

गीता त्रयोदश अध्याय  श्लोक ll 2 ll   क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥ हिन्दी अनुवाद  हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही जान (गीता अध्याय 15 श्लोक 7 और उसकी टिप्पणी देखनी चाहिए) और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को अर्थात विकार सहित प्रकृति और पुरुष का जो तत्व से जानना है (गीता अध्याय 13 श्लोक 23 और उसकी टिप्पणी देखनी चाहिए) वह ज्ञान है- ऐसा मेरा मत है

गीता त्रयोदश अध्याय, श्लोक ll 1 ll

गीता त्रयोदश अध्याय  श्लोक ll 1 ll (ज्ञानसहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय) श्रीभगवानुवाच इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥ हिन्दी अनुवाद  श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! यह शरीर 'क्षेत्र' (जैसे खेत में बोए हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इसमें बोए हुए कर्मों के संस्कार रूप बीजों का फल समय पर प्रकट होता है, इसलिए इसका नाम 'क्षेत्र' ऐसा कहा है) इस नाम से कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको 'क्षेत्रज्ञ' इस नाम से उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं ॥

गीता द्वादश अध्याय, श्लोक ll 20 ll

गीता द्वादश अध्याय  हिन्दी अनुवाद  श्लोक ll 20 ll ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते। श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥ हिन्दी अनुवाद  परन्तु जो श्रद्धायुक्त (वेद, शास्त्र, महात्मा और गुरुजनों के तथा परमेश्वर के वचनों में प्रत्यक्ष के सदृश विश्वास का नाम 'श्रद्धा' है) पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं॥ ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः                     ॥12॥

गीता द्वादश अध्याय, श्लोक ll 19 ll

गीता द्वादश अध्याय अनुवाद  श्लोक ll 19 ll तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌। अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥ हिन्दी  अनुवाद जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है  ॥

गीता द्वादश अध्याय, श्लोक ll 17 ll

गीता द्वादश अध्याय  श्लोक ll 17 ll    हिन्दी अनुवाद  यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्‍क्षति। शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥ हिन्दी अनुवाद  जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है ॥

गीता द्वादश अध्याय, श्लोक ll 18 ll

गीता द्वादश अध्याय  श्लोक ll 18 ll समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्‍गविवर्जितः॥  हिंदी अनुवाद जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गर्मी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है ॥

गीता द्वादश अध्याय, श्लोक ll 16 ll

गीता द्वादष अध्याय अनुवाद  श्लोक ll 16 ll यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्‍क्षति। शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥ हिन्दी अनुवाद जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है ||

गीता द्वादस अध्याय, श्लोक ll 15 ll

गीता द्वादस अध्याय  श्लोक ll 15 ll यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥ हिन्दी अनुवाद  जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (दूसरे की उन्नति को देखकर संताप होने का नाम 'अमर्ष' है), भय और उद्वेगादि से रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है ॥

गीता द्वादस अध्याय, श्लोक ll 13-14 ll

गीता द्वादश अध्याय, श्लोक ll13-14 ll भगवत्‌-प्राप्त पुरुषों के लक्षण) अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च। निर्ममो निरहङ्‍कारः समदुःखसुखः क्षमी॥ संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥ हिन्दी अनुवाद जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है- वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है ॥

गीता द्वादश अध्याय श्लोक ll 12 ll

गीता द्वादश अध्याय  श्लोक ll 12 ll श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते। ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌॥  हिंदी अनुवाद मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग (केवल भगवदर्थ कर्म करने वाले पुरुष का भगवान में प्रेम और श्रद्धा तथा भगवान का चिन्तन भी बना रहता है, इसलिए ध्यान से 'कर्मफल का त्याग' श्रेष्ठ कहा है) श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है ॥

गीता द्वादश अध्याय, श्लोक ll 11 ll

गीता द्वादश अध्याय  श्लोक ll 11 ll अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्‌॥ हिन्दी अनुवाद यदि मेरी प्राप्ति रूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है, तो मन-बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सब कर्मों के फल का त्याग (गीता अध्याय 9 श्लोक 27 में विस्तार देखना चाहिए) कर ॥

गीता द्वादश अध्याय, श्लोक ll 10 ll

गीता द्वादश अध्याय   श्लोक ll अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव। मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि॥ हिन्दी अनुवाद  यदि तू उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण (स्वार्थ को त्यागकर तथा परमेश्वर को ही परम आश्रय और परम गति समझकर, निष्काम प्रेमभाव से सती-शिरोमणि, पतिव्रता स्त्री की भाँति मन, वाणी और शरीर द्वारा परमेश्वर के ही लिए यज्ञ, दान और तपादि सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों के करने का नाम 'भगवदर्थ कर्म करने के परायण होना' है) हो जा। इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा ॥

गीता द्वादश अद्याय, श्लोक ll 9 ll

गीता द्वादश अध्याय  श्लोक ll 9 ll अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम्‌। अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय॥     हिन्दी अनुवाद  यदि तू मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है, तो हे अर्जुन! अभ्यासरूप (भगवान के नाम और गुणों का श्रवण, कीर्तन, मनन तथा श्वास द्वारा जप और भगवत्प्राप्तिविषयक शास्त्रों का पठन-पाठन इत्यादि चेष्टाएँ भगवत्प्राप्ति के लिए बारंबार करने का नाम 'अभ्यास' है) योग द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा कर ॥

गीता द्वादश अध्याय श्लोक 8

गीता द्वादश अध्याय  श्लोक ll 8 ll मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय। निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥  हिंदी अनुवाद मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा, इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है ||

गीता द्वादश अध्याय, श्लोक ll 7 ll

गीता द्वादस अध्याय  श्लोक ll 7 ll तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्‌। भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्‌॥ हिन्दी  अनुवाद हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ ॥