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मार्च, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 34 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 34 ll यया तु धर्मकामार्थान्धत्या धारयतेऽर्जुन। प्रसङ्‍गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी॥ हिंदी अनुवाद  परंतु हे पृथापुत्र अर्जुन! फल की इच्छावाला  मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा अत्यंत आसक्ति से धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धारण शक्ति राजसी है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 33 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 33 ll धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः। योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी॥ हिंदी अनुवाद  हे पार्थ! जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति (भगवद्विषय के सिवाय अन्य सांसारिक विषयों को धारण करना ही व्यभिचार दोष है, उस दोष से जो रहित है वह 'अव्यभिचारिणी धारणा' है।) से मनुष्य ध्यान योग के द्वारा मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं ( मन, प्राण और इंद्रियों को भगवत्प्राप्ति के लिए भजन, ध्यान और निष्काम कर्मों में लगाने का नाम 'उनकी क्रियाओं को धारण करना' है।) को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है ॥

गीता अध्याय ll18 ll, श्लोक ll32 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll32 ll अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता। सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी 'यह धर्म है' ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 31 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 31 ll यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च। अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी॥ हिंदी अनुवाद  हे पार्थ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 30 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 30 ll प्रवत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये। बन्धं मोक्षं च या वेति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी॥ हिंदी अनुवाद  हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग (गृहस्थ में रहते हुए फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिए राजा जनक की भाँति बरतने का नाम 'प्रवृत्तिमार्ग' है।) और निवृत्ति मार्ग को (देहाभिमान को त्यागकर केवल सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव स्थित हुए श्री शुकदेवजी और सनकादिकों की भाँति संसार से उपराम होकर विचरने का नाम 'निवृत्तिमार्ग' है।), कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है- वह बुद्धि सात्त्विकी है ||

गीता अध्याय ll18 ll, श्लोक ll29 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 29 ll बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु। प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय॥ हिंदी अनुवाद  हे धनंजय ! अब तू बुद्धि का और धृति का भी गुणों के अनुसार तीन प्रकार का भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णता से विभागपूर्वक कहा जाने वाला सुन ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 28 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 28 ll आयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोनैष्कृतिकोऽलसः। विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥ हिंदी अनुवाद  जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री (दीर्घसूत्री उसको कहा जाता है कि जो थोड़े काल में होने लायक साधारण कार्य को भी फिर कर लेंगे, ऐसी आशा से बहुत काल तक नहीं पूरा करता। ) है वह तामस कहा जाता है॥

गीता अध्याय ll18 ll, श्लोक ll 27 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 27 ll रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः। हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥ हिंदी अनुवाद  जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है ||

गीता अध्याय ll18 ll, slk 26

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 26 ll मुक्तसङ्‍गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः। सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥ हिंदी अनुवाद  जो कर्ता संगरहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष -शोकादि विकारों से रहित है- वह सात्त्विक कहा जाता है ॥

गीता अध्याय ll18 ll, श्लोक ll25 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 25 ll अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्‌। मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥ हिंदी अनुवाद जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरंभ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है ||

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 24 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 24 ll यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्‍कारेण वा पुनः। क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्‌॥ हिंदी अनुवाद परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 23 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 23 ll नियतं सङ्‍गरहितमरागद्वेषतः कृतम। अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते॥ हिंदी अनुवाद  जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो- वह सात्त्विक कहा जाता है ||

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 22 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 22 ll यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्‌।  अतत्त्वार्थवदल्पंच तत्तामसमुदाहृतम्‌॥ हिंदी अनुवाद  परन्तु जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला, तात्त्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है- वह तामस कहा गया है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 21 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 21 ll पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्‌। वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्‌॥ हिंदी अनुवाद  किन्तु जो ज्ञान अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 20 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 20 ll सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते। अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्॥ हिंदी अनुवाद  जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक-पृथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll19 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 19 ll (तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद) ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः। प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छ्णु तान्यपि॥ हिंदी अनुवाद गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में ज्ञान और कर्म तथा कर्ता गुणों के भेद से तीन-तीन प्रकार के ही कहे गए हैं, उनको भी तु मुझसे भलीभाँति सुन ॥

गीता अध्याय ll18 ll, श्लोक ll 18 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 18 ll ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।  करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः॥ हिंदी अनुवाद ज्ञाता (जानने वाले का नाम 'ज्ञाता' है।), ज्ञान (जिसके द्वारा जाना जाए, उसका नाम 'ज्ञान' है। ) और ज्ञेय (जानने में आने वाली वस्तु का नाम 'ज्ञेय' है।)- ये तीनों प्रकार की कर्म-प्रेरणा हैं और कर्ता (कर्म करने वाले का नाम 'कर्ता' है।), करण (जिन साधनों से कर्म किया जाए, उनका नाम 'करण' है।) तथा क्रिया (करने का नाम 'क्रिया' है।)- ये तीनों प्रकार का कर्म-संग्रह है ॥

श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय, श्लोक

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 17 ll यस्य नाहङ्‍कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते। हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥ हिंदी अनुवाद  जिस पुरुष के अन्तःकरण में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न पाप से बँधता है। जैसे अग्नि, वायु और जल द्वारा प्रारब्धवश किसी प्राणी की हिंसा होती देखने में आए तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है, वैसे ही जिस पुरुष का देह में अभिमान नहीं है और स्वार्थरहित केवल संसार के हित के लिए ही जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं, उस पुरुष के शरीर और इन्द्रियों द्वारा यदि किसी प्राणी की हिंसा होती हुई लोकदृष्टि में देखी जाए, तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है क्योंकि आसक्ति, स्वार्थ और अहंकार के न होने से किसी प्राणी की हिंसा हो ही नहीं सकती तथा बिना कर्तृत्वाभिमान के किया हुआ कर्म वास्तव में अकर्म ही है, इसलिए वह पुरुष 'पाप से नहीं बँधता'। ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 16 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 16 ll तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः। पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः॥ हिंदी अनुवाद परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि (सत्संग और शास्त्र के अभ्यास से तथा भगवदर्थ कर्म और उपासना के करने से मनुष्य की बुद्धि शुद्ध होती है, इसलिए जो उपर्युक्त साधनों से रहित है, उसकी बुद्धि अशुद्ध है, ऐसा समझना चाहिए।) होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलीन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 14 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 14 ll अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्‌। विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्‌॥ हिंदी अनुवाद इस विषय में अर्थात कर्मों की सिद्धि में अधिष्ठान (जिसके आश्रय कर्म किए जाएँ, उसका नाम अधिष्ठान है) और कर्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के करण (जिन-जिन इंद्रियादिकों और साधनों द्वारा कर्म किए जाते हैं, उनका नाम करण है) एवं नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव (पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों के संस्कारों का नाम दैव है) है ||

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 15 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 15 ll शरीरवाङ्‍मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः। न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः॥ हिंदी अनुवाद मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है- उसके ये पाँचों कारण हैं ॥

गीता अध्याय ll18 ll, श्लोक ll 13 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 13 ll कर्मों के होने में सांख्यसिद्धांत का कथन) पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे। साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्‌॥ हिंदी अनुवाद  हे महाबाहो! सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये पाँच हेतु कर्मों का अंत करने के लिए उपाय बतलाने वाले सांख्य-शास्त्र में कहे गए हैं, उनको तू मुझसे भलीभाँति जान ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 12 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 12 ll अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्‌।  भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित्‌॥ हिंदी अनुवाद कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 11 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 11 ll न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।  यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥ हिंदी अनुवाद क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है, इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही त्यागी है- यह कहा जाता है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll10ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 10 ll न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते। त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥ हिंदी अनुवाद जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है ॥

गीतध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 9 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 9 ll कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेअर्जुन। सङ्‍गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः॥ हिंदी अनुवाद हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है- इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्त्विक त्याग माना गया है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 8 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 8 ll दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्‌। स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्‌॥ हिंदी अनुवाद जो कुछ कर्म है वह सब दुःखरूप ही है- ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 7 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 7 ll नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते। मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः॥ हिंदी अनुवाद  (निषिद्ध और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है) परन्तु नियत कर्म का (इसी अध्याय के श्लोक 48 की टिप्पणी में इसका अर्थ देखना चाहिए।) स्वरूप से त्याग करना उचित नहीं है। इसलिए मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll6 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 6 ll एतान्यपि तु कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा फलानि च। कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्‌॥ हिंदी अनुवाद इसलिए हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll.5:ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 5 ll यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्‌। यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्‌॥ हिंदी अनुवाद यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप -ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को (वह मनुष्य बुद्धिमान है, जो फल और आसक्ति को त्याग कर केवल भगवदर्थ कर्म करता है।) पवित्र करने वाले हैं ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 4 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 4 ll निश्चयं श्रृणु में तत्र त्यागे भरतसत्तम। त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः॥ हिंदी अनुवाद  हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन। क्योंकि त्याग सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार का कहा गया है ॥

गीता अध्याय ll18 ll, श्लोक ll 3 ll

गीता अध्याय  ll 18 ll श्लोक ll 3 ll त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः। यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे॥ हिंदी अनुवाद  कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र दोषयुक्त हैं, इसलिए त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं ॥

गीता अध्याय ll18 ll, श्लोक ll 2 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 2 ll श्रीभगवानुवाच काम्यानां कर्मणा न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः।                 सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः॥ हिंदी अनुवाद  श्री भगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्य कर्मों के (स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिए जो यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि कर्म किए जाते हैं, उनका नाम काम्यकर्म है।) त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को (ईश्वर की भक्ति, देवताओं का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रम के अनुसार आजीविका द्वारा गृहस्थ का निर्वाह एवं शरीर संबंधी खान-पान इत्यादि जितने कर्तव्यकर्म हैं, उन सबमें इस लोक और परलोक की सम्पूर्ण कामनाओं के त्याग का नाम सब कर्मों के फल का त्याग है) त्याग कहते हैं॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 1 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 1 ll त्याग का विषय) अर्जुन उवाच सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्‌। त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन॥ हिंदी अनुवाद  अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्‌! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग के तत्व को पृथक्‌-पृथक्‌ जानना चाहता हूँ ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 27 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 28 ll अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌। असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है- वह समस्त 'असत्‌'- इस प्रकार कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही ॥ 

गीता अध्याय ll17 ll, श्लोक ll 27 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 27 ll यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते। कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते॥ हिंदी अनुवाद  तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी 'सत्‌' इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्‌-ऐसे कहा जाता है ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 26 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 26 ll सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते। प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते॥ हिंदी अनुवाद 'सत्‌'- इस प्रकार यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में और श्रेष्ठभाव में प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्म में भी 'सत्‌' शब्द का प्रयोग किया जाता है ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll25 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 25 ll तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः। दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥ हिंदी अनुवाद तत्‌ अर्थात्‌ 'तत्‌' नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है- इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार के यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 24 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 24 ll तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः। प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌॥ हिंदी अनुवाद इसलिए वेद-मन्त्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा 'ॐ' इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं ॥

गीता अध्याय ll17 ll, श्लोक ll23 ll

गीता अध्याय ll17 ll श्लोक ll 23 ll ॐ तत्सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या) ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।  ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥ हिंदी अनुवाद ॐ, तत्‌, सत्‌-ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गए ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 22 ll

गीता अध्याय ll17 ll श्लोक ll 22 ll अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते। असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्‌॥ हिंदी अनुवाद  जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 21 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 21 ll यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।  दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्‌॥ हिंदी अनुवाद  किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक (जैसे प्रायः वर्तमान समय के चन्दे-चिट्ठे आदि में धन दिया जाता है।) तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में (अर्थात्‌ मान बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि की प्राप्ति के लिए अथवा रोगादि की निवृत्ति के लिए।) रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 20 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 20 ll दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे। देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्‌॥ हिंदी अनुवाद दान देना ही कर्तव्य है- ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल (जिस देश-काल में जिस वस्तु का अभाव हो, वही देश-काल, उस वस्तु द्वारा प्राणियों की सेवा करने के लिए योग्य समझा जाता है।) और पात्र के (भूखे, अनाथ, दुःखी, रोगी और असमर्थ तथा भिक्षुक आदि तो अन्न, वस्त्र और ओषधि एवं जिस वस्तु का जिसके पास अभाव हो, उस वस्तु द्वारा सेवा करने के लिए योग्य पात्र समझे जाते हैं और श्रेष्ठ आचरणों वाले विद्वान्‌ ब्राह्मणजन धनादि सब प्रकार के पदार्थों द्वारा सेवा करने के लिए योग्य पात्र समझे जाते हैं।) प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है ॥

गीता अध्याय ll17 ll, श्लोक ll 19 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 19 ll मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।  परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्‌॥ हिन्दी अनुवाद जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है- वह तप तामस कहा गया है ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 18 ll

गीता अध्याय ll17 ll श्लोक ll 18 ll सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्‌।  क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्‌॥ हिंदी अनुवाद  जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित ('अनिश्चित फलवाला' उसको कहते हैं कि जिसका फल होने न होने में शंका हो।) एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 17 ll

गीता  अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 17 ll श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः। अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥ हिंदी अनुवाद  फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll16 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 16 ll मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।  भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥ हिंदी अनुवाद मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भलीभाँति पवित्रता, इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 15 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 15 ll अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्‌। स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्‍मयं तप उच्यते॥ हिंदी अनुवाद  जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है (मन और इन्द्रियों द्वारा जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही कहने का नाम 'यथार्थ भाषण' है।) तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है- वही वाणी-सम्बन्धी तप कहा जाता है ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 14 ll

गीता अध्याय ll17 ll श्लोक ll14 ll देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌। ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥ हिंदी अनुवाद देवता, ब्राह्मण, गुरु (यहाँ 'गुरु' शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए।) और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर- सम्बन्धी तप कहा जाता है ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 13 ll

गीता अध्याय ll17 ll श्लोक ll13 ll विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्‌।  श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥ हिंदी अनुवाद  शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं ॥

गीता अध्याय ll17 ll, श्लोक ll12ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 12 ll अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्‌। इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्‌॥ हिंदी अनुवाद परन्तु हे अर्जुन! केवल दम्भाचरण के लिए अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll11 ll

गीता अध्याय ll17 ll श्लोक ll 11 ll अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते। यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥ हिंदी अनुवाद जो शास्त्र विधि से नियत, यज्ञ करना ही कर्तव्य है- इस प्रकार मन को समाधान करके, फल न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्त्विक है॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 10 ll

गीता अध्याय ll17 ll श्लोक ll10 ll यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्‌। उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्‌॥ हिंदी अनुवाद जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है ||

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 9 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 9 ll कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः। आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥ हिंदी अनुवाद कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात्‌ भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 8 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 8 ll आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः। रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥ हिंदी अनुवाद आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले (जिस भोजन का सार शरीर में बहुत काल तक रहता है, उसको स्थिर रहने वाला कहते हैं।) तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय- ऐसे आहार अर्थात्‌ भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं ॥

गीता अध्याय ll17 ll, श्लोक ll7 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 7 ll (आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद) आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।  यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु॥ हिंदी अनुवाद भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस पृथक्‌-पृथक्‌ भेद को तू मुझ से सुन ||

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 6 ll

गीता अध्याय ll17 ll श्लोक ll 6 ll कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः। मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्‌यासुरनिश्चयान्‌॥ हिंदी अनुवाद जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं (शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान्‌ के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना, भूत समुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को ''कृश करना'' है।), उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाले जान ॥

गीता अध्याय ll 17 ll , श्लोक ll 5 ll

गीता अध्याय ll17 ll श्लोक ll5 ll अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः। दम्भाहङ्‍कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥ हिंदी अनुवाद जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 4 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 4 ll यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः। प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये जयन्ते तामसा जनाः॥ हिंदी अनुवाद सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं ॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll3 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 3 ll सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥ हिंदी अनुवाद  हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है॥

गीता अध्याय ll 17 ll, श्लोक ll 2 ll

गीता अध्याय ll 17 ll श्लोक ll 2 ll श्रीभगवानुवाच त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु॥ हिंदी अनुवाद  श्री भगवान्‌ बोले- मनुष्यों की वह शास्त्रीय संस्कारों से रहित केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा (अनन्त जन्मों में किए हुए कर्मों के सञ्चित संस्कार से उत्पन्न हुई श्रद्धा ''स्वभावजा'' श्रद्धा कही जाती है।) सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी- ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है। उसको तू मुझसे सुन ||