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गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 78 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 78 ll यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥ हिंदी अनुवाद  हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है ॥ 

गीता अध्याय ll18 ll, श्लोक ll 77 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 77 ll तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः। विस्मयो मे महान्‌ राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः॥ हिंदी अनुवाद  हे राजन्‌! श्रीहरि (जिसका स्मरण करने से पापों का नाश होता है उसका नाम 'हरि' है) के उस अत्यंत विलक्षण रूप को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 76 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 76 ll राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्‌। केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः॥ हिंदी अनुवाद  हे राजन! भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अद्‍भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 75 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 75 ll व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्‍गुह्यमहं परम्‌। योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्‌॥ हिंदी अनुवाद  व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्‍गुह्यमहं परम्‌। योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्‌॥ श्री व्यासजी की कृपा से दिव्य दृष्टि पाकर मैंने इस परम गोपनीय योग को अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 74 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 74 ll संजय उवाच इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः। संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्‌॥ हिंदी अनुवाद  संजय बोले- इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अद्‍भुत रहस्ययुक्त, रोमांचकारक संवाद को सुना ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 73 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 73 ll अर्जुन उवाच नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव॥ हिंदी अनुवाद  अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा ॥ संजय उवाच

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 72 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 72 ll कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा। कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय॥ हिंदी अनुवाद  हे पार्थ! क्या इस (गीताशास्त्र) को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और हे धनञ्जय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया? ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 71 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 71 ll श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः। सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्‌॥ हिंदी अनुवाद  जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 70 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 70 ll अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः। ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥ हिंदी अनुवाद  जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद रूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ (गीता अध्याय 4 श्लोक 33 का अर्थ देखना चाहिए।) से पूजित होऊँगा- ऐसा मेरा मत है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 69 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 69 ll न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः। भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥ हिंदी अनुवाद  उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 68 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 68 ll य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति। भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥ हिंदी अनुवाद  जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 67 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 67 ll ( श्रीगीताजी का माहात्म्य ) इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन। न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥ हिंदी अनुवाद  तुझे यह गीत रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति-(वेद, शास्त्र और परमेश्वर तथा महात्मा और गुरुजनों में श्रद्धा, प्रेम और पूज्य भाव का नाम 'भक्ति' है।)-रहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिए ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 66 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 66 ll सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ हिंदी अनुवाद  संपूर्ण धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण (इसी अध्याय के श्लोक 62 की टिप्पणी में शरण का भाव देखना चाहिए।) में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 65 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 65 ll मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।  मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥ हिंदी अनुवाद हे अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 64 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 64 ll सर्वगुह्यतमं भूतः श्रृणु मे परमं वचः। इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्‌॥ हिंदी अनुवाद  संपूर्ण गोपनीयों से अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर भी सुन। तू मेरा अतिशय प्रिय है, इससे यह परम हितकारक वचन मैं तुझसे कहूँगा ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 63 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 63 ll इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्‍गुह्यतरं मया। विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥ हिंदी अनुवाद इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 62 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 62 ll तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत। तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्‌॥ हिंदी अनुवाद हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में (लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्ति को त्यागकर एवं शरीर और संसार में अहंता, ममता से रहित होकर एक परमात्मा को ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्य भाव से अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निरंतर भगवान के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का चिंतन करते रहना एवं भगवान का भजन, स्मरण करते हुए ही उनके आज्ञा अनुसार कर्तव्य कर्मों का निःस्वार्थ भाव से केवल परमेश्वर के लिए आचरण करना यह 'सब प्रकार से परमात्मा के ही शरण' होना है) जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 61 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 61 ll ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽजुर्न तिष्ठति।  भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया॥ हिंदी अनुवाद हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए संपूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है ll

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 60 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 60 ll स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा। कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्‌॥ हिंदी अनुवाद  हे कुन्तीपुत्र! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 59 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 59 ll यदहङ्‍कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे। मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥ हिंदी अनुवाद  जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है, क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 58 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 58 ll मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।  अथ चेत्वमहाङ्‍कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥ हिंदी अनुवाद  उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 57 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 57 ll चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः। बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव॥ हिंदी अनुवाद  सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके (गीता अध्याय 9 श्लोक 27 में जिसकी विधि कही है) तथा समबुद्धि रूप योग को अवलंबन करके मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 56 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 56 ll ( भक्ति सहित कर्मयोग का विषय ) सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः। मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्‌॥ हिंदी अनुवाद  मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 55 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 55 ll भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः। ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्‌॥ हिंदी अनुवाद  उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्व से जान लेता है तथा उस भक्ति से मुझको तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 54 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 54 ll ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति। समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्‌॥ हिंदी अनुवाद  फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला (गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए) योगी मेरी पराभक्ति को ( जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना बाकी नहीं रहता वही यहाँ पराभक्ति, ज्ञान की परानिष्ठा, परम नैष्कर्म्यसिद्धि और परमसिद्धि इत्यादि नामों से कही गई है) प्राप्त हो जाता है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 51-53 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 51-53 ll बुद्ध्‌या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च। शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥ विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस। ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥ अहङकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्‌। विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥ हिंदी अनुवाद  विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हलका, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारण शक्ति के (इसी अध्याय के श्लोक 33 में जिसका विस्तार है) द्वारा अंतःकरण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यान योग के परायण रहने वाला, ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 50 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 50 ll सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।  समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥ हिंदी अनुवाद  जो कि ज्ञान योग की परानिष्ठा है, उस नैष्कर्म्य सिद्धि को जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होता है, उस प्रकार को हे कुन्तीपुत्र! तू संक्षेप में ही मुझसे समझ ॥

गीता अध्याय ll18 ll, श्लोक ll 49 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 49 ll ज्ञाननिष्ठा का विषय ) असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः। नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति॥ हिंदी अनुवाद  सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 48 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 48 ll सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्‌। सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥ हिंदी अनुवाद  अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म (प्रकृति के अनुसार शास्त्र विधि से नियत किए हुए वर्णाश्रम के धर्म और सामान्य धर्मरूप स्वाभाविक कर्म हैं उनको ही यहाँ स्वधर्म, सहज कर्म, स्वकर्म, नियत कर्म, स्वभावज कर्म, स्वभावनियत कर्म इत्यादि नामों से कहा है) को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 47 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 47 ll श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌। स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌॥ हिंदी अनुवाद  अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता ||

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 46 ll

गीता अध्याय ll18 ll श्लोक ll 46 ll यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्‌। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥ हिंदी अनुवाद  जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत्‌ व्याप्त है (जैसे बर्फ जल से व्याप्त है, वैसे ही संपूर्ण संसार सच्चिदानंदघन परमात्मा से व्याप्त है), उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके (जैसे पतिव्रता स्त्री पति को सर्वस्व समझकर पति का चिंतन करती हुई पति के आज्ञानुसार पति के ही लिए मन, वाणी, शरीर से कर्म करती है, वैसे ही परमेश्वर को ही सर्वस्व समझकर परमेश्वर का चिंतन करते हुए परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार मन, वाणी और शरीर से परमेश्वर के ही लिए स्वाभाविक कर्तव्य कर्म का आचरण करना 'कर्म द्वारा परमेश्वर को पूजना' है) मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 45 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 45 ll स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः। स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥ हिंदी अनुवाद  अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll44 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 44 ll स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः। स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥ हिंदी अनुवाद  अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 43 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 43 ll शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्‌।  दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्‌॥ हिंदी अनुवाद  शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 42 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 42 ll शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्‌॥ हिंदी अनुवाद  अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध (गीता अध्याय 13 श्लोक 7 की टिप्पणी में देखना चाहिए) रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं ॥

गीता अध्याय ll18 ll, श्लोक ll 41 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 41 ll फल सहित वर्ण धर्म का विषय) ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप। कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥ हिंदी अनुवाद  हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 40 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 40 ll न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः। सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिःस्यात्त्रिभिर्गुणैः॥ हिनरी अनुवाद  पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 39 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 39 ll यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।  निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्‌॥ हिंदी अनुवाद  जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 38 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 38 ll विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्‌। परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्‌॥ हिंदी अनुवाद  जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले- भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य (बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह और परलोक का नाश होने से विषय और इंद्रियों के संयोग से होने वाले सुख को 'परिणाम में विष के तुल्य' कहा है) है इसलिए वह सुख राजस कहा गया है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 36 - 37 ll

गीता अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 36-37 ll सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।  अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति॥  यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्‌।  तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्‌॥ हिंदी अनुवाद  हे भरतश्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अंत को प्राप्त हो जाता है, जो ऐसा सुख है, वह आरंभकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत (जैसे खेल में आसक्ति वाले बालक को विद्या का अभ्यास मूढ़ता के कारण प्रथम विष के तुल्य भासता है वैसे ही विषयों में आसक्ति वाले पुरुष को भगवद्भजन, ध्यान, सेवा आदि साधनाओं का अभ्यास मर्म न जानने के कारण प्रथम 'विष के तुल्य प्रतीत होता' है) होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है, इसलिए वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है ॥

गीता अध्याय ll 18 ll, श्लोक ll 35 ll

अध्याय ll 18 ll श्लोक ll 35 ll यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च। न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी॥ हिंदी अनुवाद  हे पार्थ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दु:ख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता अर्थात धारण किए रहता है- वह धारण शक्ति तामसी है ॥