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गीता सप्तम अध्याय, श्लोक ll 6 ll

गीता सप्तम  अध्याय  श्लोक ll 6 ll एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।  अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय हूँ अर्थात्‌ सम्पूर्ण जगत का मूल कारण हूँ ॥

गीता सप्तम अध्याय, श्लोक ll 4-5 ll

गीता सप्तम अध्याय  श्लोक ll 4-5 ll भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।  अहङ्‍कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥  अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्‌।  जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्‌॥ हिंदी अनुवाद पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी- इस प्रकार ये आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहो! इससे दूसरी को, जिससे यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जान ॥

गीता सप्तम अध्याय, श्लोक ll 3 ll

गीता सप्तम अध्याय  श्लोक ll 3 ll मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।  यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः॥ हिंदी अनुवाद  हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्व से अर्थात यथार्थ रूप से जानता है ॥

गीता सप्तम अध्याय, श्लोक || 2 ||

गीता शप्तम अध्याय  श्लोक ll 2 ll ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।  यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते॥ हिंदी अनुवाद  मैं तेरे लिए इस विज्ञान सहित तत्व ज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता ॥

गीता सप्तम अध्याय, श्लोक ll 1 ll

गीता सप्तम अध्याय  श्लोक ll 1 ll  श्रीभगवानुवाच  मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।  असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥ हिंदी अनुवाद  श्री भगवान बोले- हे पार्थ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्त चित तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुन ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 47 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 47 ll योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।  श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥ हिंदी अनुवाद  सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मा से मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है  ॥     ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः   ॥6॥

गीता षष्टम अद्याय

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 46 ll तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।  कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥ हिंदी अनुवाद  योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है। इससे हे अर्जुन! तू योगी हो ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 45 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 45 ll प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।  अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम्‌॥ इंडिया अनुवाद  परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कारबल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परमगति को प्राप्त हो जाता है ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll44 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 44 ll पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।  जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥ हिंदी अनुवाद  वह (यहाँ 'वह' शब्द से श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पुरुष समझना चाहिए।) श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पराधीन हुआ भी उस पहले के अभ्यास से ही निःसंदेह भगवान की ओर आकर्षित किया जाता है तथा समबुद्धि रूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल को उल्लंघन कर जाता है  ॥44॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 43 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 43 ll तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌।  यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन॥ हिंदी अनवाद  वहाँ उस पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धि-संयोग को अर्थात समबुद्धिरूप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्तिरूप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 42 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 42 ll अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌।  एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌॥ हिंदी अनुवाद  अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है, परन्तु इस प्रकार का जो यह जन्म है, सो संसार में निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ है ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 41 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 41 ll प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।  शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥ हिंदी अनुवाद  योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात स्वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है ॥

.गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 40 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 40 ll श्रीभगवानुवाच   पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।  न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥ हिंदी अनुवाद  श्री भगवान बोले- हे पार्थ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही क्योंकि हे प्यारे! आत्मोद्धार के लिए अर्थात भगवत्प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं हो  ॥

गीता शस्तम अध्याय, श्लोक ll 39 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 39 ll एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।  त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥ हिंदी अनुवाद  हे श्रीकृष्ण! मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है ॥

गीता शस्तम अध्याय, श्लोक ll 39 ll

गीता षष्टम अध्याय  आलोक ll 39 ll एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।  त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥ हिंदी अनुवाद  हे श्रीकृष्ण! मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है  ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 38 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 38 ll कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।  अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि॥ हिंदी अनुवाद  हे महाबाहो! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 37 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 37 ll ( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )   अर्जुन उवाच  अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।  अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥ हिंदी अनुवाद  अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 36 ll

गीता षष्टम अध्याय  अलोक ll 36 ll असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।  वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥ हिंदी अनुवाद  जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किए हुए मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है- यह मेरा मत है ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 35 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 35 ll श्रीभगवानुवाच   असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌।  अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ हिंदी अनुवाद  श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास (गीता अध्याय 12 श्लोक 9 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखना चाहिए।) और वैराग्य से वश में होता है ॥

गीता शस्तम अध्याय, श्लोक ll 34 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 34 ll चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्‌।  तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌॥ हिंदी अनुवाद  क्योंकि हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिए उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 33 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 33 ll ( मन के निग्रह का विषय )   अर्जुन उवाच  योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।  एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌॥ हिंदी अनुवाद  अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! जो यह योग आपने समभाव से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 32 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 32 ll आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।  सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! जो योगी अपनी भाँति (जैसे मनुष्य अपने मस्तक, हाथ, पैर और गुदादि के साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और म्लेच्छादिकों का-सा बर्ताव करता हुआ भी उनमें आत्मभाव अर्थात अपनापन समान होने से सुख और दुःख को समान ही देखता है, वैसे ही सब भूतों में देखना 'अपनी भाँति' सम देखना है।) सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 31ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 31 ll सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।  सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥ हिंदी अनुवाद  जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझमें ही बरतता है ॥

गीता शस्तम अध्याय, श्लोक ll 30 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 30 ll यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।  तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥ हिंदी अनुवाद  जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत (गीता अध्याय 9 श्लोक 6 में देखना चाहिए।) देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 28 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 28 ll युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।  सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥ हिंदी अनुवाद  वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनंद का अनुभव करता है ॥

गीता षष्टम अध्याय, अलोक ll 29 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 29 ll सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।  ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥ हिंदी अनुवाद  सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 27 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 27 ll प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌।  उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌॥ हिंदी अनुवाद  क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत है, जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 26 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 26 ll यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌।  ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌॥ हिंदी अनुवाद   स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करना सार्थक कर्म कहलायेगा ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 25 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 25 ll शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया।  आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌॥ हिंदी अनुवाद  क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 24 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 24 ll सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।  मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥ हिंदी अनुवाद  संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेष रूप से त्यागकर और मन द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँति रोककर ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 23 ll

गीता षष्टम अध्याय,  श्लोक ll 23 ll तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।  स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥ हिंदी अनुवाद  जो दुःखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग न उकताए हुए अर्थात धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 22 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 22 ll यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।  यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥ हिंदी अनुवाद  परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता ॥

गीता शशि अध्याय, श्लोक ll 21 ll

गीता शस्तम अध्याय  श्लोक ll  सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌।  वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥ हिंदी अनुवाद  इन्द्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है, और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नही ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 22 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 22 ll यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।  यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥ हिंदी अनुवाद  परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 20 ll

गीता षस्टम अध्याय  श्लोक ll 20 ll यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।  यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥ हिंदी अनुवाद  योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 19 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 19 ll यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता।  योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥ हिंदी अनुवाद  जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है ॥

गीता षस्टम अध्याय, श्लोक ll 18 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 18 ll यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।  निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥ हिंदी अनुवाद  अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है ॥

गीता षस्टम अधयाय, श्लोक ll 17ll

गीता षस्टम अध्याय  श्लोक ll 17 ll युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।  युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥ हिंदी अनुवाद  दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 16 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 16 ll नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।  न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिलकुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है ॥

गीता षस्टम अध्याय, श्लोक ll 15 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 15 ll युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।  शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥ हिंदी अनुवाद  वश में किए हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरंतर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप शान्ति को प्राप्त होता है ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 14 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 14 ll प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।  मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥ हिंदी अनुवाद  ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, भयरहित तथा भलीभाँति शांत अन्तःकरण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होए ॥

गीता षष्ट्म अध्याय, श्लोक ll 13 ll

गीता षष्टम  अध्याय  श्लोक ll 13 ll समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।  सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌॥ हिंदी अनुवाद  काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ ॥

गीता सिस्टम अध्याय, श्लोक ll 12 ll

गीता सहसतम अध्याय  श्लोक ll 12 ll तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।  उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥ हिंदी अनुवाद  उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे ॥

गीता षस्टम अध्याय, श्लोक ll 11 ll

गीता षस्टम अध्याय  श्लोक ll 11 ll ( विस्तार से ध्यान योग का विषय )   शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।  नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्‌॥ हिंदी अनुवाद  शुद्ध भूमि में, जिसके ऊपर क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके ॥

गीता षस्टम अध्याय, श्लोक ll 10 ll

गीता षस्टम अध्याय  श्लोक ll 10 ll योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।  एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥ हिंदी अनुवाद  मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकांत स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगाए ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 9 ll

गीता षस्टम अध्याय  श्लोक ll 9 ll सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।  साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥ हिंदी अनुवाद  सुहृद् (स्वार्थ रहित सबका हित करने वाला), मित्र, वैरी, उदासीन (पक्षपातरहित), मध्यस्थ (दोनों ओर की भलाई चाहने वाला), द्वेष्य और बन्धुगणों में, धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है ॥

गीता षष्ट्म अध्याय, श्लोक ll 8 ll

गीता षष्ट्म अध्याय  श्लोक ll 8 ll ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।  युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः॥ हिंदी अनुवाद  जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकाररहित है, जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान हैं, वह योगी युक्त अर्थात भगवत्प्राप्त है, ऐसे कहा जाता है ॥

गीता षस्टम अध्याय, श्लोक ll 7 ll

गीता षस्टम अध्याय  श्लोक ll 7 ll जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।  शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥ हिंदी अनुवाद  सरदी-गरमी और सुख-दुःखादि में तथा मान और अपमान में जिसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ भलीभाँति शांत हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानन्दघन परमात्मा सम्यक्‌ प्रकार से स्थित है अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं ॥

गीता षस्टम अध्याय, श्लोक ll 6 ll

गीता षस्टम अध्याय  श्लोक  ll 6 ll बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।  अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌॥ हिंदी अनुवाद  जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है ॥

गीता सष्तम अध्याय, श्लोक ll 5 ll

गीता षष्टम अध्याय  श्लोक ll 5 ll ( आत्म-उद्धार के लिए प्रेरणा और भगवत्प्राप्त पुरुष के लक्षण )   उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌।  आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥ हिंदी अनुवाद  अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है ॥

अध्याय -6 श्लोक ll 4 ll

गीता  अध्याय -6 श्लोक ll 4 ll यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।  सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते॥ हिंदी अनुवाद  जिस काल में न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है ॥

गीता शतम अध्याय

गीता षस्टम अध्याय  श्लोक ll 3 ll आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।  योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥  हिंदी अनुवाद  योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जाता है ॥

गीता षस्टम अध्याय, श्लोक ll 2 ll

गीता अध्याय - 6 श्लोक ll 2 ll यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।  न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! जिसको संन्यास (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग (गीता अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका खुलासा अर्थ लिखा है।) जान क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता ॥

गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 1 ll

अध्याय -6, ध्यान योग  श्लोक ll 1 ll ( कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ पुरुष के लक्षण )   श्रीभगवानुवाच  अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।  स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥ हिंदी अनुवाद  श्री भगवान बोले- जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 29 ll

गीता पंचम अध्याय,  श्लोक ll 29 ll भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌।  सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥ मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपों का भोगने वाला, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूत-प्राणियों का सुहृद् अर्थात स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा तत्व से जानकर शान्ति को प्राप्त होता है ॥     ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पंचमोऽध्यायः  ॥5॥

गीता पंचम अध्याय श्लोक ll 27-28 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 27-28 ll ( भक्ति सहित ध्यानयोग का वर्णन )   स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।  प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥  यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।  विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥ हिंदी अनुवाद  बाहर के विषय-भोगों को न चिन्तन करता हुआ बाहर ही निकालकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके, जिसकी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि जीती हुई हैं, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि (परमेश्वर के स्वरूप का निरन्तर मनन करने वाला।) इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, वह सदा मुक्त ही है ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 26 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 26 ll कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्‌।  अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्‌॥ हिंदी अनुवाद  काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्तवाले, परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए सब ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण है ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 25 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 25 ll लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।  छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥ हिंदी अनुवाद  जिनके सब पाप नष्ट हो गए हैं, जिनके सब संशय ज्ञान द्वारा निवृत्त हो गए हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत ब्रह्म को प्राप्त होते हैं ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 24ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 24 ll योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः।  स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥ हिंदी अनुवाद  जो पुरुष अन्तरात्मा में ही सुखवाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्य योगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 23 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 23 ll शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्‌।  कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥ हिंदी अनुवाद  जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 22 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 22 ll ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।  आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥ हिंदी अनुवाद  जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरूप भासते हैं, तो भी दुःख के ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 21 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 21 ll बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्‌।  स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥ हिंदी अनुवाद  बाहर के विषयों में आसक्तिरहित अन्तःकरण वाला साधक आत्मा में स्थित जो ध्यानजनित सात्विक आनंद है, उसको प्राप्त होता है, तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभिन्न भाव से स्थित पुरुष अक्षय आनन्द का अनुभव करता है ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 20 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 20 ll न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌।  स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः॥ हिंदी श्लोक  जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिरबुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 19 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 19 ll इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।  निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः॥ हिंदी अनुवाद  जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 18 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 18 ll विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।  शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥ हिंदी अनुवाद  वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी (इसका विस्तार गीता अध्याय 6 श्लोक 32 की टिप्पणी में देखना चाहिए।) ही होते हैं ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 17 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 17 ll तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।  गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥ हिंदी अनुवाद  जिनका मन तद्रूप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तद्रूप हो रही है और सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही जिनकी निरंतर एकीभाव से स्थिति है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्ति को अर्थात परमगति को प्राप्त होते हैं ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 16 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 16 ll ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।  तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्‌॥ हिंदी अनुवाद  परन्तु जिनका वह अज्ञान परमात्मा के तत्व ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 15 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 15 ll नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।  अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥ हिंदी अनुवाद  सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के पाप कर्म को और न किसी के शुभकर्म को ही ग्रहण करता है, किन्तु अज्ञान द्वारा ज्ञान ढँका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 15 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 15 ll नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।  अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥ हिंदी अनुवाद  सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के पाप कर्म को और न किसी के शुभकर्म को ही ग्रहण करता है, किन्तु अज्ञान द्वारा ज्ञान ढँका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 14 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 14 ll न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।  न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते। हिंदी अनुवाद  परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं, किन्तु स्वभाव ही बर्त रहा है  ॥14॥. 

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 13 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 13 ll  (ज्ञानयोग का विषय )   सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।  नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌॥ हिंदी अनुवाद  अन्तःकरण जिसके वश में है, ऐसा सांख्य योग का आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीर रूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर आनंदपूर्वक सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 12 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 12 ll युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌।  अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥ हिंदी अनुवाद  कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत्प्राप्ति रूप शान्ति को प्राप्त होता है और सकामपुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बँधता है ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 11 ll

गीता पंचम अध्याय,  श्लोक ll 11 ll कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि।  योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये॥ हिंदी अनुवाद  कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्याग कर अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 10 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 10 ll ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः।  लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥ हिंदी अनुवाद  जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ॥

गीता पंचम अध्याय श्लोक ll 8-9 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 8-9ll नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌।  पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌॥  प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि॥  इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌॥ हिंदी अनुवाद  तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और मूँदता हुआ भी, सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर निःसंदेह ऐसा मानें कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 7 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 7 ll ( सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा )   योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।  सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥ हिंदी अनुवाद  जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तःकरण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता  ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 6 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 6 ll सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।  योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥ हिंदी अनुवाद  परन्तु हे अर्जुन! कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात्‌ मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है और भगवत्स्वरूप को मनन करने वाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 5 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 5 ll  यत्साङ्‍ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते।  एकं साङ्‍ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति॥ हिंदी अनुवाद  ज्ञान योगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है ॥

गीता पंचम अध्याय

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 4 ll साङ्‍ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।  एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌॥ हिंदी अनुवाद  उपर्युक्त संन्यास और कर्मयोग को मूर्ख लोग पृथक्‌-पृथक् फल देने वाले कहते हैं न कि पण्डितजन, क्योंकि दोनों में से एक में भी सम्यक्‌ प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता है ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 3 ll

गीता पंचम अद्याय  श्लोक ll 3 ll ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्‍क्षति।  निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥ हिंदी anuwad हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि राग-द्वेषादि द्वंद्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 2 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 2 ll श्रीभगवानुवाच  सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।  तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥ हिंदी अनुवाद  श्री भगवान बोले- कर्म संन्यास और कर्मयोग- ये दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं, परन्तु उन दोनों में भी कर्म संन्यास से कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है ॥

गीता पंचम अध्याय, श्लोक ll 1 ll

गीता पंचम अध्याय  श्लोक ll 1 ll ( सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय )   अर्जुन उवाच  सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।  यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्‌॥ हिंदी अनुवाद  अर्जुन बोले- हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्यास की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। इसलिए इन दोनों में से जो एक मेरे लिए भलीभाँति निश्चित कल्याणकारक साधन हो, उसको कहिए  ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll42 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 42 ll तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।  छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥    हिंदी अनुवाद  इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा ॥ ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः॥4॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll41 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 41 ll योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌।  आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय॥ हिंदी अनुवाद  हे धनंजय! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किए हुए अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 40 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 40 ll अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।  नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥ हिंदी अनुवाद  विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है  ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 39 ll

गीता चतुर्थ अध्याय श्लोक ll 39 ll श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।  ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥ हिंदी अनुवाद  जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के- तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है  ॥