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गीता षष्टम अध्याय, श्लोक ll 32 ll

गीता षष्टम अध्याय 

श्लोक ll 32 ll

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
 सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥


हिंदी अनुवाद 

हे अर्जुन! जो योगी अपनी भाँति (जैसे मनुष्य अपने मस्तक, हाथ, पैर और गुदादि के साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और म्लेच्छादिकों का-सा बर्ताव करता हुआ भी उनमें आत्मभाव अर्थात अपनापन समान होने से सुख और दुःख को समान ही देखता है, वैसे ही सब भूतों में देखना 'अपनी भाँति' सम देखना है।) सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है ॥

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