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गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 38 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 38 ll न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।  तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥ हिंदी अनुवाद  इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 37 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 37 ll यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।  ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥ हिंदी अनुवाद  क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 36 ll

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 36 ll श्लोक ll 36 ll  अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।  सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥ हिंदी अनुवाद  यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जाएगा ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 35 ll

गीता  चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 35 ll यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।  येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥ हिंदी अनुवाद  जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन! जिस ज्ञान द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को निःशेषभाव से पहले अपने में (गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए।) और पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखेगा। (गीता अध्याय 6 श्लोक 30 में देखना चाहिए।) ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 34 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 34 ll तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।  उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः॥ हिंदी अनुवाद  उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्‌ प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे ॥

गीता चतुर्थ अध्ययाय, श्लोक ll33ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 33 ll ( ज्ञान की महिमा ) श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।  सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥ हिंदी अनुवाद  हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 32 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 32 ll एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।  कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥ हिंदी अनुवाद  इसी प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गए हैं। उन सबको तू मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान, इस प्रकार तत्व से जानकर उनके अनुष्ठान द्वारा तू कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाएगा  ॥

गीता चतुर्थ अध्याय श्लोक ll 31 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 31ll  यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌।  नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥ हिंदी अनुवाद  हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। और यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिए तो यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है? ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 29-30 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll29-30 ll अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।  प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥  अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।  सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥ हिंदी अनुवाद  दूसरे कितने ही योगीजन अपान वायु में प्राणवायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार (गीता अध्याय 6 श्लोक 17 में देखना चाहिए।) करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 28 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 28 ll द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।  स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥ हिंदी अनुवाद  कई पुरुष द्रव्य संबंधी यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही तपस्या रूप यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही अहिंसादि तीक्ष्णव्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll27 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 27 ll सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।  आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥ हिंदी अनुवाद  दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं (सच्चिदानंदघन परमात्मा के सिवाय अन्य किसी का भी न चिन्तन करना ही उन सबका हवन करना है।) ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 26 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 26 ll श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।  शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥ हिंदी अनुवाद  अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयम रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll25 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 25 ll दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।  ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥ हिंदी अनुवाद  दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में अभेद दर्शनरूप यज्ञ द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं। (परब्रह्म परमात्मा में ज्ञान द्वारा एकीभाव से स्थित होना ही ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ को हवन करना है।) ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 24 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 24 ll ( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन ) ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌।  ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥ हिंदी अनुवाद  जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है- उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही हैं ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 23 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 23 ll गतसङ्‍गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।  यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥ हिंदी अनुवाद  जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसा केवल यज्ञसम्पादन के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 22 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 22 ll यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः।  समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥ हिंदी अनुवाद  जो बिना इच्छा के अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है, जिसमें ईर्ष्या का सर्वथा अभाव हो गया हो, जो हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से सर्वथा अतीत हो गया है- ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 21ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 21ll निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।  शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌॥ हिंदी अनुवाद  जिसका अंतःकरण और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-संबंधी कर्म करता हुआ भी पापों को नहीं प्राप्त होता ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 20ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 20 ll त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।  कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥ हिंदी अनुवाद  जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्य तृप्त है, वह कर्मों में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 19 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 19 ll ( योगी महात्मा पुरुषों के आचरण और उनकी महिमा ) यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।  ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः॥ हिंदी अनुवाद  जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि द्वारा भस्म हो गए हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं  ॥

गीता चारर्थ अध्याय, श्लोक ll 18 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 18 ll कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।  स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्‌॥ हिंदी अनुवाद  जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 17 ll

गीता चतुर्थाध्याय  श्लोक ll 17 ll कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।  अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥ हिंदी अनुवाद  कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्मण का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 16 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 16 ll किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।  तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌॥ हिंदी अनुवाद  कर्म क्या है? और अकर्म क्या है? इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिए वह कर्मतत्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा ॥ 

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 15 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 15 ll एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।  कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌॥ हिंदी अनुवाद  पूर्वकाल में मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किए हैं, इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए जाने वाले कर्मों को ही कर ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 14 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 14 ll न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।  इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥ हिंदी अनुवाद  कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते- इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 13 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 13 ll चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।  तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌॥ हिंदी अनुवाद  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll12 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 12 ll काङ्‍क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।  क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥ हिंदी अनुवाद  इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल को चाहने वाले लोग देवताओं का पूजन किया करते हैं क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है   ॥ 

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 11 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 11 ll ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌।  मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं  ॥

गीता चतुर्थ अध्याय , श्लोक ll 10 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 10 ll वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।  बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥ हिंदी अनुवाद  पहले भी, जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गए थे और जो मुझ में अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त उपर्युक्त ज्ञान रूप तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं ॥x

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 9 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 9 ll जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः।  त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात निर्मल और अलौकिक हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से (सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्दन परमात्मा अज, अविनाशी और सर्वभूतों के परम गति तथा परम आश्रय हैं, वे केवल धर्म को स्थापन करने और संसार का उद्धार करने के लिए ही अपनी योगमाया से सगुणरूप होकर प्रकट होते हैं। इसलिए परमेश्वर के समान सुहृद्, प्रेमी और पतितपावन दूसरा कोई नहीं है, ऐसा समझकर जो पुरुष परमेश्वर का अनन्य प्रेम से निरन्तर चिन्तन करता हुआ आसक्तिरहित संसार में बर्तता है, वही उनको तत्व से जानता है।) जान लेता है, वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है   ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 8 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 8 ll परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌।  धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥ हिंदी अनुवाद  साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ  ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 7 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 7 ll यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।  अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌॥ हिंदी अनुवाद  हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 6 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 6 ll अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌।  प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥ हिंदी अनुवाद  मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll5 ll

श्रीमद भागवद गीता  श्लोक ll 5 ll श्रीभगवानुवाच बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।  तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥ हिंदी अनुवाद  श्री भगवान बोले- हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ  ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 4 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक  ll 4 ll अर्जुन उवाच अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।  कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥ हिंदी अनुवाद  अर्जुन बोले- आपका जन्म तो अर्वाचीन-अभी हाल का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अर्थात कल्प के आदि में हो चुका था। तब मैं इस बात को कैसे समूझँ कि आप ही ने कल्प के आदि में सूर्य से यह योग कहा था? ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 3 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 3 ll स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।  भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌॥ हिंदी अनुवाद  तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 2 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 2 ll एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।  स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥ हिंदी अनुवाद  हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया ॥

गीता चतुर्थ अध्याय, श्लोक ll 1 ll

गीता चतुर्थ अध्याय  श्लोक ll 1 ll ( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय ) श्री भगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌।  विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌॥ हिंदी  अनुवाद  श्री भगवान बोले- मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा  ॥1॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 43 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 43 ll एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना।  जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌॥ हिंदी अनुवाद  इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल ॥    ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णानसंवादे कर्मयोगो नाम                    तृतीयोऽध्यायः                          ll3ll

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 42 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 42 ll इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।  मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥ हिंदी अनुवाद  इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 41 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 41 ll तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।  पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌॥ हिंदी अनुवाद  इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 40 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 40 ll इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।  एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌॥ हिंदी अनुवाद  इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है  ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 39 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 39 ll आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।  कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥ हिंदी अनुवाद  और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 38 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 38 ll धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।  यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमा हिंदी अनुवाद  जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 37 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 37 ll श्रीभगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।  महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌॥ हिंदी अनुवाद  श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान ॥ 

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 36 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 36 ll ( काम के निरोध का विषय ) अर्जुन उवाचः अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः।  अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥ हिंदी अनुवाद  अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 35 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 35 ll श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌।  स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥ हिंदी अनुवाद  अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है  ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 34 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 34 ll इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।  तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥ हिंदी अनुवाद  इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान्‌ शत्रु हैं ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 33 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 33 ll सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।  प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥ हिंदी अनुवाद  सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान्‌ भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 32 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 32 ll ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌।  सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥ हिंदी अनुवाद  परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 31 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 31 ll ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।  श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः॥ हिंदी अनुवाद  जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं  ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 30 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 30 ll मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा।  निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥ हिंदी अनुवाद  मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युद्ध कर ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 29 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 29 ll प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।  तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌॥ हिंदी अनुवाद  प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे ॥

गीता तिर्तीय अध्याय श्लोक ll 28 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 28 ll तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।  गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥ हिंदी अनुवाद  परन्तु हे महाबाहो! गुण विभाग और कर्म विभाग (त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय- इन सबके समुदाय का नाम 'गुण विभाग' है और इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम 'कर्म विभाग' है।) के तत्व (उपर्युक्त 'गुण विभाग' और 'कर्म विभाग' से आत्मा को पृथक अर्थात्‌ निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।) को जानने वाला ज्ञान योगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 27 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 27 ll प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।  अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥ हिंदी अनुवाद  वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है  ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 26 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 26 ll न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌।  जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌॥ हिंदी अनुवाद  परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए  ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 25 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 25 ll ( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा ) सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।  कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌॥ हिंदी अनुवाद  हे भारत! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे  ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 24 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक  ll 24 ll यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌।  संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥ हिंदी अनुवाद  इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ  ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 23 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 23 ll यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।  मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥ हिंदी अनुवाद  क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित्‌ मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 22 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 22 ll न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।  नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ  ॥

गीत तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 21 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 21 ll यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।  स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ हिंदी अनुवाद  श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है (यहाँ क्रिया में एकवचन है, परन्तु 'लोक' शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गई है।)  ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 20 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 20 ll कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।  लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि॥ हिंदी अनुवाद  जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है  ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 19 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 19 ll तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।  असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः॥ हिंदी अनुवाद  इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है  ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 18 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 18 ll संजय उवाच: नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।  न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥ हिंदी अनुवाद  उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 17 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 17 ll ( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )  यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।  आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥ हिंदी अनुवाद  परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 16 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 16 ll एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।  अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥ हिंदी अनुवाद  हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 14-15 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 14-15 ll अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।  यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥  कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌।  तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌॥ हिंदी अनुवाद  सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 13 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 13 ll यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।  भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌॥ हिंदी अनुवाद  यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 12 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 12 ll इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।  तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः॥ हिंदी अनुवाद  यज्ञ द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है, वह चोर ही है ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 11 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 11 ll देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।  परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥ हिंदी अनुवाद  तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 10 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 10 ll सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः।  अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌॥ हिंदी  अनुवाद  प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 9 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 9 ll ( यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता का निरूपण ) यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः।  तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर॥ हिंदी अनुवाद  यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 8 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 8 ll नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।  शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः॥ हिंदी अनुवाद  तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 7 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 7 ll यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।  कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥ हिंदी अनुवाद  किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 6 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 6 ll कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌।  इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥ हिंदी अनुवाद  जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 5 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 5 ll न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌।  कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥ हिंदी अनुवाद  निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 4 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 4 ll न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।  न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥ हिंदी अनुवाद  मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम 'निष्कर्मता' है।) को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 3 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 3 ll श्रीभगवानुवाच लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।  ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌॥ हिंदी अनुवाद  श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम 'निष्ठा' है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम 'ज्ञान योग' है, इसी को 'संन्यास', 'सांख्ययोग' आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम 'निष्काम कर्मयोग' है, इसी को 'समत्वयोग', 'बुद्धियोग', 'कर्मयोग', 'तदर्थकर्म', 'मदर्थकर्म', 'मत्कर्म' आदि नामों से कहा गया है।) होती है ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 2 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 2 ll व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।  तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌॥ हिंदी अनुवाद  आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ ॥

गीता तिर्तीय अध्याय, श्लोक ll 1 ll

गीता तिर्तीय अध्याय  श्लोक ll 1 ll (ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण) अर्जुन उवाच ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।  तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥ हिंदी अनुवाद  अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं? ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 72 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll72 ll एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।  स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है ॥  ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः                                 ॥2॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 71 ll

गीता द्वीतीय अध्याय  श्लोक ll 71 ll विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।  निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥ हिंदी अनुवाद  जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है अर्थात वह शान्ति को प्राप्त है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 70 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 70 ll आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-  समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌।  तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे  स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ हिंदी अनुवाद  जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 69 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 69 ll या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।  यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥ हिंदी अनुवाद  सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थित मन का योगी ही जागता है और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है ॥ 

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 68 ll

गीता द्वीय अध्याय  श्लोक ll68ll तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।  इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ हिंदी अनुवाद  इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार से वश मे की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 67 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 67 ll इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।  तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥ हिंदी अनुवाद  क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही मनुष्य के अंदर की बुद्धि शरीर को हर लेती है, अतः मनुष्य की बुद्धि जिस प्रकार की होगी, इन्द्रिया उसी तरह का व्यवहार करेंगी,, अगर बुद्धि स्वच्छ  हो तो ब्यवहार भी स्वच्छ होगा, अगर बुद्धि दूषित हो तो ब्यवहार भी दूषित होगा ॥

गीता द्वित्यीय अध्याय, श्लोक ll 66 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 66 ll नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।  न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌॥ हिंदी अनुवाद  जिस मनुष्य ने अपने इन्द्रियों को अपने वस मे ना किया हो अर्थात असंयमित बुद्धि वाले मनुष्य के अंतर्मन में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है? ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 65 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 65 ll प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।  प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥ हिंदी अनुवाद  अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 64 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 64 ll रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌।  आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥ हिंदी अनुवाद  परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 63 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 63 ll क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।  स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ हिंदी अनुवाद  क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 62 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 62 ll ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।  संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥ हिंदी अनुवाद  विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 61 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 61 ll तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।  वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ हिंदी अनुवाद  इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 60 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 60 ll यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।  इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात्‌ हर लेती हैं ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 59 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 59 ll विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।  रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते॥ हिंदी अनुवाद  इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 58 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 58 ll यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः।  इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ हिंदी अनुवाद  और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए) ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 57 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 57 ll यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌।  नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ हिंदी अनुवाद  जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 56 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 56 ll दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।  वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥ हिंदी अनुवाद  दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 55 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll55ll श्रीभगवानुवाच  प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌।  आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥ हिंदी अनुवाद  श्री भगवान्‌ बोले- हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 54 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll54ll ( स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा )  अर्जुन उवाच  स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।  स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌॥ हिंदी अनुवाद  अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 53 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 53 ll श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।  समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥ हिंदी अनुवाद  भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll52 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 52 ll यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरि ॥  तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥ हिंदी अनुवाद  जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को भलीभाँति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाए ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 51 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 51ll कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।  जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्‌॥ हिंदी अनुवाद  क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 50 ll

गीता द्वितय अध्याय  श्लोक ll 50 ll बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।  तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌॥ हिंदी अनुवाद  समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्व रूप योग में लग जा, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मबंध से छूटने का उपाय है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 49 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 49 ll दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।  बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥ हिंदी अनुवाद  इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात्‌ बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 48 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 48 ll योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय।  सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥ हिंदी अनुवाद  हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम 'समत्व' है।) ही योग कहलाता है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 47 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 47 ll कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।  मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥ हिंदी अनुवाद  तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हों ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 46 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 46ll यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।  तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥ हिंदी अनुवाद  सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 45 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 45 ll त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।  निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग' है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।) को न चाहने वाला और स्वाधीन   वाला हो ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 42-44 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 42-44 ll यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।  वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥  कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌।  क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥  भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌।  व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात्‌ दिखाऊ शोभायुक्त वाणी  कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती  ॥42-44॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 41ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 41ll व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।  बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌॥ हिंदी अनुवाद  हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 40ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक   ll40ll यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते।  स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌॥ हिंदी अनुवाद  इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 39 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 39 ll ( कर्मयोग का विषय )  एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।  बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥ हिंदी अनुवाद  हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के (अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखें।) विषय में सुन- जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भाँति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा ॥

गीता द्वितीय अघ्याय, श्लोक ll 38 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 38 ll सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।  ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ हिंदी अनुवाद  जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 37 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 37ll हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌।  तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥ हिंदी अनुवाद  या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 36 ll

गीता हिंदी अनुवाद  श्लोक ll 36 ll अवाच्यवादांश्च बहून्‌ वदिष्यन्ति तवाहिताः।  निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌॥ हिंदी अनुवाद  तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दुःख और क्या होगा? ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 35 ll

गीता द्वितीय श्लोक  श्लोक ll 35 ll भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।  येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌॥ हिंदी अनुवाद  और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे ॥

गीता द्वितीय अध्याय, श्लोक ll 34 ll

गीता द्वितीय अध्याय  श्लोक ll 34 ll अकीर्तिं चापि भूतानि  कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌।  सम्भावितस्य चाकीर्ति-  र्मरणादतिरिच्यते॥ हिंदी अनुवाद  तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है ॥